देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन में आज
अमरजीत कौर एक जाना पहचाना नाम है। वे एटक की महासचिव
हैं।
उन्होंने
एक कदम आगे के संवाददाता इमरान खान से तमाम विषयों पर बहुत खुलकर बात की। प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंश
पंजाब में आप कहां से हैं?मेरी पैदाइश गुरदासपुर जिले की है। तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई मैंने वहीं की है, फिर हम दिल्ली आ गए थे। कालेज की पढ़ाई मैंने दिल्ली युनिवर्सिटी से की है। मेरी शादी पंजाब में हुई उसके बाद से मैं पंजाब और दिल्ली दोनों जगह रहती हूं।
पढ़ाई के दौरान आप छात्र संगठनों से जुड़ गई थीं? दरअसल मेरे पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। उनसे मैंने आजादी आंदोलन के बारे में काफी कुछ सीखा। इसके अलावा और भी आन्दोलनकारियों के जीवन को बचपन में ही बहुत नजदीकी से देखा। उनके साहस, साफगोई, और इमानदारी ने मेरे अन्दर सामाजिक कामों के प्रति आकर्षण पैदा किया। इससे के बाद मेरा झुकाव क्रांतिकारी किताबें पढऩे की ओर हुआ। ऐसे परिवेश ने मुझे शुरू से ही क्रांतिकारी बना दिया। उसी समय से देश के लिए कुछ करने का जज्बा पैदा हुआ। लोगों के काम आना, देश की सेवा करना, ये सोच शुरू हुई। नतीजे के तौर पर स्कूल के समय से ही मैंने काम शुरू कर दिया था। जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी तो मेरी लीडरशिप में पहली हड़ताल हुई। लड़कियों का स्कूल था। उस एक हड़ताल ने मुझे काफी कुछ सिखाया। शुरू से ही संघर्षों से जुडऩे के बाद बहुत सी स्टूडेंट संगठनों ने मुझे अपने साथ जोडऩा चाहा मगर मेरा झुकाव उस तरफ था जो किसानों, मजदूरों और गरीबों को मदद करता है। उसी समय से मैं कम्युनिस्ट विचारधारा की तरफ आकर्षित हुई।
ट्रेड यूनियन में एक कार्यकर्ता के तौर पर जुड़ीं या सीधा आपको पद दिया गया?
युनिवर्सिटी की पढ़ाई के दौरान ही मेरा झुकाव महिलाओं व मजदूरों की तरफ बढ़ गया था। 1986 में जब मैंने स्टूडेंट आंदोलन से रिटायरमेंट लेने के बाद मैं पूरी तरह से ट्रेड यूनियन और महिला आंदोलन से जुड़ गई। शुरू में तो एक कार्यकर्ता के तौर पर ही जुड़ी थी। पूरे प्रोसेस को कंप्लीट करने के बाद ही आप एक आर्गेनाइजर के रुप में मर्ज होते हैं। पहले ऐक्टिविस्ट फिर आरगेनाइजर उसके बाद मुझे जिम्मेदारी दी गई कि मैं किसी सेक्शन को आरगेनाइज करूं। उसके बाद मुझे महिला आंदोलन की लीडरशिप भी मिली और फिर ट्रेड यूनियन की स्टेट बॉडी की लीडरशिप में भी शामिल किया गया। 1994 में मैं ऐटक की नेशनल सेक्रेटरी बनी। उसके बाद मुझे चाइल्ड लेबर का भी चार्ज दिया गया। मैं दिल्ली स्टेट की पार्टी सेक्रेटरी हूं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की टाप बॉडी में भी हूं।
इतने काम में तालमेल कैसे बैठाती हैं?जब दिल में किसी के लिए कुछ करने का जुनून हो तो सब हो जाता है। ट्रेड यूनियन एक वर्किंग क्लास मूवमैंट है और कम्युनिस्ट आंदोलन एक वर्किंग क्लास पॉलिटिक्स। विचार आपको ताकत देते हंै कि वर्करों के अधिकारों के लिए लडऩा है फिर आपकी चैरिटी की सोच नहीं रहती।
माक्र्सवादी विचारधारा के हमारे देश में इतने संगठन हैं, क्या इनको एक प्लेटफार्म पर नहीं लाया जा सकता?देखिए, माक्र्सवाद की विचारधारा है तो एक ही, पर जब हिंदुस्तान में इसको अप्लाई करने की बात आती है तो उसमें सबकी सोच अलग-अलग है। देश यही है, लोग यही है, पर देश का विकास कहां हैं, देश की विभिन्नताएं कैसी है, मान्यताएं कैसी हैं यह एक अलग बात है। मंहगाई के मुद्दे पर हम एक हैं, गरीबों के हक की लड़ाई के मुद्दों पर हम एक हैं। सत्ता में कैसे आना है, सत्ता में मजदूरों का कैसे बोलबाला हो सिर्फ इसी सोच में फर्क है। लेकिन जहां सोच में फर्क हैं मुझे लगता है वहां भी प्रयास करना चाहिए। पिछले साल से हम लगातार कोशिश कर रहे हैं कि सभी ट्रेड यूनियन को एक प्लेटफार्म पर लाएं।
सरकार दिन प्रतिदिन महंगाई बढ़ा रही है, इस पर क्या कहेंगी?सरकार बेतहाशा महंगाई बढ़ा रही है। पार्टियों के विरोध के बाद भी सरकार बेशर्मी से महंगाई बढ़ा रही हैं। लोगों की आमदनी तो कम हो रही है क्योंकि सरकार उनकी जेबों पर टैक्स लगा रही है। इससे जीवन स्तर स्तर गिर रहा हैं। महंगाई ने आम जनता का जीवन गर्क कर दिया है।
मजदूरों के लिए जो एनजीओ काम कर रहे हैं पैसा वो पूंजीपति देशों से लेते हैं और साम्राज्यवाद के नाम पर उन्हीं के खिलाफ बोलते हैं। आपकी क्या राय है?अगर कोई अमेरिका, ब्रिटेन से पैसा ले रहा है और फिर सम्राज्यवाद का विरोध कर रहा है तो ये दोगली नीति है। आप देखिए जो एनजीओ विदेशी पैसे से काम कर रहे हैं उनका एजेंडा हर छह महीने पर बदलता रहता है। जो फंड गिवर है वो ही एजेंडा तय करता है। अगर पैसे देने वाला ही एजेंडा तय करेगा तो ना मजदूर आंदोलन आगे बढ़ाया जा सकता है, ना ही किसान आंदोलन।
सीपीआई और जनसंघ एक ही समय में बनें। माक्र्सवाद की सही विचारधारा होने के बावजूद सीपीआई का आधार सिकुड़ता गया जबकि साम्प्रदायिक ताकतें देश में नंगा नाच कर रही हैं? ऐसा क्यों हो रहा है?
1925 में जब सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन की सोच रखने वाली पार्टी जब अस्तित्व में आई तो उसी समय प्रतिक्रांतिवादी और हिटलर के फांसीवाद से प्रेरणा लेने वाली जनसंघ का जन्म हुआ। आज वही काम आरएसएस कर रही है। आरएसएस हजारों साल से चल रहे अन्धविश्वास को आगे बढ़ाने का काम कर रही है। क्रान्तिकारी ताकतों के खिलाफ एक जमीन यहां पहले से मौजूद है। इसी जमीन पर आरएसएस जैसे संगठन खड़े होते हैं। ऐसे संगठन पूंजीवाद के लिए विचारधात्मक खाद पानी मुहैया करवाते हैं। आरएसएस जैसे संगठनों की सोच गैर वैज्ञानिक है, जो जातिवाद और अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं। हमको इन सबके विरुद्ध खड़े होना है। हमने देश को आजाद कराने के बाद कैसा समाज बनाना है उस लड़ाई को शुरू किया। अंग्रेज जब हमें दो हिस्सों में बांटना चाहते थे तो आरएसएस ने हिंदूवाद के नाम पर उसमें अहम भूमिका निभाई। नतीजे के तौर पर गांधी जी की हत्या हुई। देश आजाद होने के बाद से वामपंथी लोग मजदूरों के लिए लड़ रहे हैं, और देश के लोगों को आहिस्ता-आहिस्ता समाजवाद की तरफ भी मोड़ रहे हैं। समाज में मौजूद गंदगी को बढ़ाना मुश्किल नहीं है उसको हटाकर नए रास्ते बनाना मुश्किल है। हम एमएलए और एमपी की लड़ाई में बहुत पीछे रह गए मगर देश के सामाजिक, आर्थिक ढांचे के अंदर लोगों के लिए जगह बनाने की लड़ाई में हमें कामयाबी मिली है। कम्युनिस्ट आंदोलन के तेजी से न बढऩे का एक कारण उसका बिखराव भी है। सीपीआई से कुछ लोगों ने सीपीएम बना ली फिर सीपीएम से नक्सलवाड़ी के बाद सीपीआई एमएल बन गयी। उनमें से कुछ लोगों ने बाद में हथियारबन्द लड़ाई शुरू कर दी, आज भी उन्होंने जंगलों को नहीं छोड़ा है वे आज भी लड़ रहे हैं। उन्हें आप माओवादी के रुप में जानते हैं। वे अपने रास्ते से भटक गये हैं। इन्हीं सब कारणों से हम कमजोर हुए। जो मालेगांव में हुआ है, जो गुजरात में हुआ है, जो राजस्थान के अंदर बम विस्फोट हुआ है जिसमें सीधे-सीधे हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों का हाथ है। ऐसे मसलों को उठाया ही नहीं जाता। आखिर क्यों? किसी आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है। भाजपा और उसके दूसरे आनुषांगिक संगठन अमेरिका की भाषा बोलते हैं। वे सारे मुस्लिमों को ही आतंकवादी बता देते हैं। बहुत लम्बे समय तक उन्होंने आरएसएस के माध्यम यह जहर समाज में घोला है। आज वे उसकी फसल काटने का काम कर रहे हैं।
आपकी पार्टी के अलावा भी बहुत सी पार्टियां व संगठन मजदूरों के हक के लिए लड़ रहे हैं। बात इमानदारी या बेइमानी की नहीं है, पर आप उनसे अलग कैसे हैं?
मजदूरों के छोटे-मोटे हकों के लिए तो सभी लड़ रहे हैं पर हमारा लक्ष्य मजदूरों को सत्ता में लाना है। यही फर्क है उनमें और हममें। हम मजदूरों की भागीदारी सत्ता में बढ़ाना चाहते हैं जो पूंजीवाद के खात्मे के बाद ही होगी। इसके बाद ही किसान खुशहाल हो सकेगा।
क्या समाजवाद सिर्फ आर्थिक लड़ाइयां लडऩे से ही आएगा?नहीं, ऐसा नहीं है। आर्थिक लड़ाइयां पूरी लड़ाई का सिर्फ एक पहलू हैं। सोच की भी लड़ाई है। इसलिए सांस्कृतिक लड़ाइयां भी जरूरी हैं। सामाजिक परिवर्तनों की लड़ाइयां भी जरूरी हैं। आधी आबादी महिलाओं की है। अगर महिला की भागीदारी सियासत में करनी है और समाजवाद लाना है तो इस आधी आबादी की भागीदारी कैसे होगी, उसकी जिंदगी के लिए भी जो बराबरी के आयाम है उसकी लड़ाई लडऩी होगी।
इलेक्शन के समय आपकी पार्टी भी विद्यार्थियों और मजदूरों को प्रचार के लिए लगाती हैं। आप इसे कहां तक ठीक मानती हैं?प्रचार में तो सबको लगना ही चाहिए। जब चुनाव आता है तो चुनाव की प्रक्रिया में तो सभी को शामिल होना चाहिए। हम यह तो नहीं कहते कि हम जनवादी चुनावी प्रक्रिया को नहीं मानते, मगर ऐसा नहीं है। इसलिए जब चुनाव की प्रक्रिया होगी तो हम सबको ही कहेंगे कि चुनाव में उतरें।
जब आप पिछड़ीं महिलाओं के बीच काम करती हैं तो आपको क्या परेशानियां आती हैं? देखिए, परेशानी तो होगी ही क्योंकि अशिक्षा बहुत है, अज्ञानता बहुत है। देश के हालात बहुत खराब हैं। दूर-दराज के इलाकों में जाकर कहना, कि तुम संगठित हो जाओ और लड़ लो, बहुत मुश्किल है। हम तो कह कर आ जाएंगे, पर जो महिलाएं चारों तरफ से अपने विरोधियों से घिरी हैं, जो देख रही हैं कि इलाके की पुलिस भी गुंडों को सलाम करती है, उस महिला को हम सिर्फ प्रवचन दे कर चले आएं ये सही नहीं है। इसलिए जो दबे हुए हिस्से हैं उनमें साहस पैदा करना, उन्हें बताना कि तुम अकेले-अकेले नहीं लड़ सकते हो, तुम्हें संगठित होना ही होगा। जो समाजवाद लाने की बात करते हैं उनकों महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करनी ही होगी। ट्रेड यूनियन की आर्थिक लड़ाई सामाजिक लड़ाई में परिवर्तित तभी होगी एक आंदोलन दूसरे आंदोलन की महत्ता समझेगा।
मजदूर संगठन में जब पुरुष और महिला साथ काम करते हैं तो क्या पुरुष मजदूरों की पुरुषवादी सोच काम में रुकावट बनती है?पुरुष प्रधान समाज की पुरुषवादी सोच तो सब जगह आती है। चाहे आप वर्किंग क्लास पॉलिटिक्स करें या मिडल क्लास की। आपको अपने आप को डी क्लास करना होगा। जो पुरुषप्रधान समाज की सोच हमारे संस्कारों, रीति रिवाजों और त्योहारों में बसी हुई है। हमारी रोजमर्रा की भाषा में घुसी हुई है। वो हमें परिवार की परवरिश से मिलती है। इसके खिलाफ चौतरफा लड़ाई लडऩी होगी।
मजदूरों के हकों के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है, उनसे ज्यादा काम करवाया जाता है, ओवर टाइम नहीं मिलता। उसके बारे में आपका संगठन क्या कर रहा हैं?
हां, ये समस्या तो देश में बहुत बड़े पैमाने पर है। मजदूरों से 12 से 14 घंटे तक काम लिया जा रहा है। श्रम कानून का सीधे-सीधे उल्लघंन हो रहा है। असंगठित क्षेत्र में तो यह 100 फीसद है। संगठित क्षेत्र में जो गर्वमेंट सेक्टर है, वहां भी सरकार ठेके पर काम दे रही है। उनसे ज्यादा काम करवाया जा रहा है। जब सरकार ही कानूनों का उल्लंघन कर रही है तो पब्लिक सेक्टर में तो होगा ही। इस पर ट्रेड यूनियन लड़ रही है। सरकार हमें लडऩें भी कहां दे रही है। सरकार तो यूनियन बनाने का ही विरोध कर रही है। यूनियन बनाना जो कानूनी तौर पर हमारा अधिकार है वही हमसे छीना जा रहा है, तो हम सरकार से और क्या उम्मीद कर सकते हैं।
सरकार तेजी से विभागों का निजीकरण कर रही है। इसके बारे में क्या कहेंगी?सरकार ने क्लास फोर तो खत्म ही कर दिया है। सारा काम ठेके पर दे दिया है। कालेजों में, सरकारी दफ्तरों में कहीं भी देखिए क्लास फोर का काम ठेके पर दे दिया गया है। सरकार की पूंजीवादी सोच का ही यह नतीजा है। सरकार अपना मुनाफा कम नहीं करना चाहती बल्कि गरीबों का हक मारने पर तूली हुई है।