इमरान खान
वसुं
धरा (गाजियाबाद) से आनंद विहार (दिल्ली) तक का सफर कहने को करीब चार किलोमीटर का ही है। जो तेज रफ्तार मोटरसाइकिल या कार से 10 से 15 मिनट में तय किया जा सकता है पर उस इंसान को किन मुश्किलों से गुजरना पड़ता है होगा जिसके पास इन दोनों साधनों में से कोई नहीं होगा। इसका अंदाजा मुझे उस वक्त हुआ जब मैंने वसुंधरा से आनंद विहार पहली बार गया। लोगों ने मुझे वहां पहुंचने के दो रास्ते बताए। पहला यह कि आप ऑटो बुक कर लें जो सिर्फ आपको आनंद विहार तक ले जाएगा। अगर आप इस रास्ते पर रोजाना सफर करना चाहते हैं तो आपको दूसरा रास्ता ही अपनाना पड़ेगा। वो है शेयरिंग ऑटो का। वसुंधरा से आनंद विहार को जाने वाली लोकल बसें समय-समय पर ही चलती हैं इसलिए आपको शेयरिंग ऑटो का ही सहारा लेना पड़ेगा। आसपास खड़े तीन-चार लोगों के साथ मैं भी शेयरिंग ऑटों का इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में एक ऑटो आया भी पर उसमें भीड़ और गर्मी का अंदाजा लगाते हुए मैंने उसमें ना बैठना ही ठीक समझा। मेरे साथ खड़े बाकी लोग उसमें बैठ कर जा चुके थे। थोड़ी देर में एक और ऑटो आया जिसमें सिर्फ एक ही सवारी थी। शायद ऑटो वाले को कुछ जल्दी थी सो उसने रफ्तार कम की और मुझे चलते ऑटो में ही चढऩा पड़ा। ऑटो में सिर्फ दो ही आदमी थे। ऑटो वाला और सवारियां बैठाना चाहता था जिससे उसने ऑटो की रफ्तार थोड़ी कम कर दी। दूर से जब कोई सवारी आती दिखती तो वो रुक जाता। हैरानी उस वक्त होती जब वो पास आकर ना में सिर हिलाता। चार किलोमीटर के रास्ते में ऐसा कई बार हुआ। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुछ सवारियां ऑटो में बैठीं भी। एक समय ऑटो में दोनो तरफ तीन-तीन सवारियां थी। इसके बाद जब-जब ऑटो रुकता तो सामने खड़ा व्यक्ति पहले सोचता बैठूं या ना बैठूं। एक बार ऑटो वाला खुद उतर कर सवारियों को सैट करने लगा। उस वक्त मेरी समझ आया कि ऑटो वाले अपने साथ एक और व्यक्ति क्यों रखते हैं। एक तरफ अब तीन और दूसरी ओर चार सवारियां थीं। ऑटो फिर रुका अबकी बार सामने खड़ी थी 20-21 साल की लड़की। पहले तो वो सोचती रही कि बैठूं कि ना बैठूं। फिर हिम्मत करके ऑटो में चढ़ी। वहां बैठे तीन पुरुष अपनी जगहों से थोड़ा भी नहीं सरके। उसके बाद वो नीचे उतर गई। उसके बाद ऑटो वाले ने खुद आकर उनको थोड़ा-थोड़ा सरकाया तब वो लड़की ऑटो में बैठ सकी। फिर भी उन तीन 'महान' पुरुषों ने उसको उतनी ही जगह दी जिसमें वो अपने आप को किसी तरह गिरने से बचा सके। कुछ दूरी पर एक सवारी ऑटो से उतर गई। ऑटो चालक फिर एक सवारी की तलाश में नजरें इधर-उधर दौड़ाने लगा। फिर ऑटो रुका, अब सामने खड़ा था 50-55 साल का बुर्जुग। फिर वही सबकुछ। अबकी बार तो वो लड़की भी एक इंच नहीं सरकी। जिससे वो बुजुर्ग थोड़ा ठीक से बैठ सकता। दुनिया कितनी स्वार्थी है यही सोचते-सोचते कुछ सफर और कटा। ऑटो जब खस्ताहाल सड़कों से गुजरता तो सवारियां बहुत मुश्किल से अपने आप को गिरने से बचा पातीं। गाजियाबाद, एनसीआर का एक बड़ा हिस्सा है पर वहां आम आदमी की जिंदगी कैसी है वो मैंने छोटे से सफर में ही महसूस किया। दिल्ली-एनसीआर में अगर आपके पास नीजि वाहन नहीं है तो ऐसा घटनाक्रम आपके साथ रोज घटेगा। ऑटो चालक की भाषा भी अपने आप में मिसाल थी। वो सवारियों से ऐसे बात करते जैसे वो जेलर हो और सवारियां कैदी। इतना रुखापन, फिर भी सवारियों में कोई प्रतिक्रिया नहीं। शायद सवारियां उनसे अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी थीं। यही सोचते-सोचते 'छोटा-सा' सफर खत्म हुआ। जैसे ही उतर कर ऑटो वाले को पैसे देकर जाने लगा तो देखा लगभग सभी ऑटो में यही नजारा था।
वसुं

5 comments:
live it
ye safar jeevan ke sabharsh ka ek hissa hai..
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