Saturday, July 17, 2010

सरेराह चलते-चलते

इमरान खान
वसुंधरा (गाजियाबाद) से आनंद विहार (दिल्ली) तक का सफर कहने को करीब चार किलोमीटर का ही है। जो तेज रफ्तार मोटरसाइकिल या कार से 10 से 15 मिनट में तय किया जा सकता है पर उस इंसान को किन मुश्किलों से गुजरना पड़ता है होगा जिसके पास इन दोनों साधनों में से कोई नहीं होगा। इसका अंदाजा मुझे उस वक्त हुआ जब मैंने वसुंधरा से आनंद विहार पहली बार गया। लोगों ने मुझे वहां पहुंचने के दो रास्ते बताए। पहला यह कि आप ऑटो बुक कर लें जो सिर्फ आपको आनंद विहार तक ले जाएगा। अगर आप इस रास्ते पर रोजाना सफर करना चाहते हैं तो आपको दूसरा रास्ता ही अपनाना पड़ेगा। वो है शेयरिंग ऑटो का। वसुंधरा से आनंद विहार को जाने वाली लोकल बसें समय-समय पर ही चलती हैं इसलिए आपको शेयरिंग ऑटो का ही सहारा लेना पड़ेगा। आसपास खड़े तीन-चार लोगों के साथ मैं भी शेयरिंग ऑटों का इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में एक ऑटो आया भी पर उसमें भीड़ और गर्मी का अंदाजा लगाते हुए मैंने उसमें ना बैठना ही ठीक समझा। मेरे साथ खड़े बाकी लोग उसमें बैठ कर जा चुके थे। थोड़ी देर में एक और ऑटो आया जिसमें सिर्फ एक ही सवारी थी। शायद ऑटो वाले को कुछ जल्दी थी सो उसने रफ्तार कम की और मुझे चलते ऑटो में ही चढऩा पड़ा। ऑटो में सिर्फ दो ही आदमी थे। ऑटो वाला और सवारियां बैठाना चाहता था जिससे उसने ऑटो की रफ्तार थोड़ी कम कर दी। दूर से जब कोई सवारी आती दिखती तो वो रुक जाता। हैरानी उस वक्त होती जब वो पास आकर ना में सिर हिलाता। चार किलोमीटर के रास्ते में ऐसा कई बार हुआ। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुछ सवारियां ऑटो में बैठीं भी। एक समय ऑटो में दोनो तरफ तीन-तीन सवारियां थी। इसके बाद जब-जब ऑटो रुकता तो सामने खड़ा व्यक्ति पहले सोचता बैठूं या ना बैठूं। एक बार ऑटो वाला खुद उतर कर सवारियों को सैट करने लगा। उस वक्त मेरी समझ आया कि ऑटो वाले अपने साथ एक और व्यक्ति क्यों रखते हैं। एक तरफ अब तीन और दूसरी ओर चार सवारियां थीं। ऑटो फिर रुका अबकी बार सामने खड़ी थी 20-21 साल की लड़की। पहले तो वो सोचती रही कि बैठूं कि ना बैठूं। फिर हिम्मत करके ऑटो में चढ़ी। वहां बैठे तीन पुरुष अपनी जगहों से थोड़ा भी नहीं सरके। उसके बाद वो नीचे उतर गई। उसके बाद ऑटो वाले ने खुद आकर उनको थोड़ा-थोड़ा सरकाया तब वो लड़की ऑटो में बैठ सकी। फिर भी उन तीन 'महान' पुरुषों ने उसको उतनी ही जगह दी जिसमें वो अपने आप को किसी तरह गिरने से बचा सके। कुछ दूरी पर एक सवारी ऑटो से उतर गई। ऑटो चालक फिर एक सवारी की तलाश में नजरें इधर-उधर दौड़ाने लगा। फिर ऑटो रुका, अब सामने खड़ा था 50-55 साल का बुर्जुग। फिर वही सबकुछ। अबकी बार तो वो लड़की भी एक इंच नहीं सरकी। जिससे वो बुजुर्ग थोड़ा ठीक से बैठ सकता। दुनिया कितनी स्वार्थी है यही सोचते-सोचते कुछ सफर और कटा। ऑटो जब खस्ताहाल सड़कों से गुजरता तो सवारियां बहुत मुश्किल से अपने आप को गिरने से बचा पातीं। गाजियाबाद, एनसीआर का एक बड़ा हिस्सा है पर वहां आम आदमी की जिंदगी कैसी है वो मैंने छोटे से सफर में ही महसूस किया। दिल्ली-एनसीआर में अगर आपके पास नीजि वाहन नहीं है तो ऐसा घटनाक्रम आपके साथ रोज घटेगा। ऑटो चालक की भाषा भी अपने आप में मिसाल थी। वो सवारियों से ऐसे बात करते जैसे वो जेलर हो और सवारियां कैदी। इतना रुखापन, फिर भी सवारियों में कोई प्रतिक्रिया नहीं। शायद सवारियां उनसे अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी थीं। यही सोचते-सोचते 'छोटा-सा' सफर खत्म हुआ। जैसे ही उतर कर ऑटो वाले को पैसे देकर जाने लगा तो देखा लगभग सभी ऑटो में यही नजारा था।

फुटबॉल को मिल ही गया नया चैंपियन

इमरान खान
फुटबाल वल्ड कप 2010 का रोमांच बहुत सी यादों के साथ खत्म हो गया। स्पेन ने हालैंड को 1-0 से हराकर फुटबाल वल्र्ड कप 2010 अपने नाम किया। स्पेन जहां पहली बार फाइनल में पहुंचा था वहीं हालैंड 1974 और 78 के फाइनल में भी हार का सामना कर चुका है। फुटबाल की दुनिया में विश्व विजेता का ताज पहनने वाली स्पेन आठवीं टीम है और पहली ऐसी टीम है जो यूरो चैंपियन होने के साथ विश्व विजेता बनने में भी सफल रही। इसके अलावा स्पेन ऐसी पहली टीम है जिसने अपना पहला मैच हारने के बाद विश्व कप का खिताब जीता हो। स्पेन की इस जीत केसाथ ही आक्टोपस पाल की इस विश्व कप की आखरी भविष्यवाणी भी सही साबित हुई। इन दोनों देशों के फाइनल में पहुंचने के बाद से ही यह तय था कि इस बार फुटबाल को नया चैंपियन मिलने वाला है। दोनों टीमें निर्धारित समय तक कोई गोल नहीं कर पाईं। एक्स्ट्रा टाइम के आखरी समय में स्पेन के आंद्रेस इनियेस्टा ने गोल दाग कर अपनी टीम की जीत सुनिश्चित की। पिछले कई सालों से बेहतर फुटबाल खेल रहे स्पेन ने अपने देश को खुशी मनाने का एक बड़ा मौका दिया। फुटबाल का समापन समारोह भी भव्य रहा। नेल्सन मंडेला और शकीरा इसके आकर्षण का केंद्र रहे। रंगभेद के खिलाफ जंग लडऩे वाले मंडेला महज चंद मिनटों के लिए साकर सिटी स्टेडियम पहुंचे। इसी के साथ पिछले लगभग एक महीने से पूरे अफ्रीका और खासतौर से दक्षिण अफ्रीका में जारी फुटबाल का बुखार भी थम जाएगा। शोर के आदी हो चुके कान अब शायद इसके लिए तरस जाएं। फुटबाल का अगला महाकुंभ फुटबाल के जोगा बोनिता यानि सुंदर और प्रवाहमय सांबा फुटबाल के देश ब्राजील में होगा। शकीरा ने लाइट शो और आतिशबाजी के बाद अपना जलवा बिखेरा। उन्होंने उदघाटन समारोह में विश्व कप के गीत वाका-वाका से दर्शकों का मन मोह लिया और समापन समारोह में भी उन्होंने इस गीत पर लोगों को थिरकने के लिए मजबूर कर दिया। उनके इलावा ग्रेमी पुरस्कार विजेता कापेला समूह की लेडीस्मिथ ब्लैक माम्जो भी समापन समारोह की आकर्षण रहीं। इस समारोह में अफ्रीका के कई देशों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया। दक्षिण अफ्रीका में जब 19वां फीफा विश्व कप शुरू हुआ तो माना जा रहा था कि वायने रूनी, क्रिस्टियानो रोनाल्डो, लियोनेल मेसी और काका जैसे दिग्गज फुटबालर इस महाकुंभ के महानायक बनकर उभरेंगे। लेकिन आखिर में कोई खिलाड़ी नहीं बल्कि सुदूर जर्मनी के ओबेरहासेन शहर में एक छोटे से टैंक में कैद आठ पैरों वाला आक्टोपस पॉल सब पर भारी पड़ा। अपनी भविष्यवाणियों के कारण पाल बाबा, संत पाल और पंडित पाल बने आक्टोपस ने यूं तो लीग चरण से ही जर्मनी के मैचों के विजेता के बारे में बताना शुरू कर दिया था लेकिन नाकआट चरण में उन्हें ज्यादा लोकप्रियता है।
कौन है ऑक्टोपस ऑक्टोपस ऑक्टोपस का जन्म ब्रिटेन में हुआ है। इसके मालिक का कहना है कि इसने 2008 में यूरोपीय चैंपियनशिप के दौरान भी 70 फीसदी सही भविष्यवाणी की थी। कुछ ज्योतिषियों की भी राय है कि ऑक्टोपस में ताकत है और प्रकृति की ताकत से सब संभव है। इसलिए यह ऑक्टोपस जो भविष्यवाणी कर रहा है, उसके सच होने की संभावना काफी ज्यादा है।
शकीरा का जलवा भी रहा वल्र्ड कप के दौरान शकीरा ने लोगों का खूब मनोरंजन किया। फुटबाल के लिए गाए गाने 'वाका-वाका दिस टाइम फॉर साउथ अफ्रीका' लोगों की जबान पर चढ़ गया और शायद तब तक रहेगा जब तक शकीरा अपने चाहने वालों को कोई नया गाना नहीं देती।
कौन है आंद्रेस इनियेस्टा 116वें मिनट में जैसे ही आंद्रेस इनयेस्टा ने स्पेन के लिए गोल दागा। उसी समय से लगभग स्पेन की जीत तय हो गई थी। उसके बाद स्पेन के हीरो बनकर उभरे इनियेस्टा ही खबरों में छाए रहे। आंद्रेस के इसी हैरतअंगेज गोल के बूते पर स्पेन ने जीत को भी पाया। 11 मई 1984 को स्पेन में पैदा हुए आंद्रेस इनियेस्टा में बचपन से ही फुटबाल का एक अच्छा खिलाड़ी होने के लगभग सभी गुण थे। इनियेस्टा ने अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच 27 मई 2006 को रशिया के खिलाफ खेला था। ये स्पेन की टीम में मिड फिल्डर के तौर पर जुड़े थे। इनियेस्टा अभी स्पेन के बरसेलोना कल्ब से जुड़े हैं और 2014 तक इसी कल्ब के लिए खेलेंगे। इनियेस्टा मैदान में किसी भी जगह खेलने का माद्दा रखते हैं और उनके कोच उन्हें मैदान में मिड फिल्डर की जिम्मेदारी सौंपी है। इनियेस्टा के इसी गोल के लिए उन्हें मैन ऑफ द मैच का खिताब भी दिया गया। इस जीत के बात इनियेस्टा जब अपने देश स्पेन पहुंचे तो लोगों ने उनका बड़ी ही गर्मजोशी के साथ स्वागत किया।

Wednesday, July 7, 2010

मोहब्बत अहसासों की पावन सी कहानी है...

अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का, मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा...। समाज में प्रेम को लेकर हंगामा है लेकिन दिलों में बसे प्रेम को जगाने के लिए कुछ शब्द ही काफी हैं। कुमार विश्वास के इन शब्दों का जादू लोगों की जुबान पर चढ़ा भी है और जायका बदलने में भी सफल रहा है। आई हेट लव स्टोरीज के दौर में प्यार की लौ को जलाने का काम करने वाले युवा कवि की एक कदम आगे के संवाददाता इमरान खान से हुई बातचीत के कुछ हिस्से।
दुनिया आपको पढऩे और सुनने की शौकीन है, आजकल आप क्या पढ़ रहे हैं?
अपनी चेतना के शुरुआती दौर में मैंने बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं। हिंदी, अंग्रेजी साहित्य के अलावा मैंने बाईबल और कुरान शरीफ भी पढ़ी है और अब भी पढ़ता हूं। पढ़ाई के दौरान एक स्थिति ऐसी आती है कि वो उलझ जाता है उसको लगता है कि ये भी सही है, वो भी सही है। फिर वो धीरे-धीरे अपने बारे में सोचना शुरू करता है। इन दिनों व्यस्तताओं की वजह से किताबें तो कम ही पढ़ता हूं पर जब कोई नई किताब आती हैं तो जरूर पढ़ता हूं।
अब तक आपने जो लिखा या पढ़ा है उससे कितना सतुंष्ट हैं?
एक प्रतिशत भी नहीं। मैं जो भी लिखता हूं कुछ दिन बाद मुझे लगना शुरू हो जाता है कि इसमें वो मजा नहीं है। मुझे देश के हर कोने से युवा कवि अपनी कविताएं भेजते हैं। नई पीढ़ी मुझ से काफी हद तक जुड़ी है। अच्छी कविताओं का आना बाकी है। हो सकता है एक दिन मैं अच्छी कविता लिखूं।
आपको क्या गाना अच्छा लगता है?
जो प्रस्तुति करने वाले कवि हैं उनके साथ विडंबना ये है कि उन्हें क्या अच्छा लगता है उससे बड़ी बात ये है कि श्रोता सुनना क्या चाहते हैं। मुझे नवगीत, पारंपरिक गीत अच्छे लगते हैं। काफी हद तक मुझे पगली लड़की भी अच्छी लगती थी। एक बच्ची पर मैंने मधयंतिका नाम की एक कविता लिखी थी, वो भी मुझे काफी पसंद है। एक तलाकशुदा महिला की 4 साल की बच्ची मेरे साथ खेलने आती थी, जब मैं राजस्थान में पढ़ाता था। एक कविता मैंने कारगिल के बाद लिखी थी वो भी मुझे काफी पसंद है। कुछ बातें लिखी नहीं जाती आसमान से उतरती हैं जो दिल में घर कर जाती हैं।
आप किसी फिल्म में भी काम कर रहे हैं?
हां, गोविंदा के साथ एक फिल्म की है चाय गर्म जिसमें मैं लीड रोल में हूं। ये फिल्म जल्दी ही कंप्लीट होने वाली है।
क्या आज भी कुमार विश्वास अपने आप को एक बच्चा ही समझते हैं?
लगभग आज भी मैं उसी तरह महसूस करता हूं जैसा बीस साल पहले करता था। शायद इसलिए अपने आप को सेलीब्रिटी नहीं मानता। बच्चों के साथ खेलने जाता हूं। बीवी के साथ बाजार भी जाता हूं। जिससे मैं बाल कटवाता हूं उस के मोबाईल में मेरी आवाज की रिंगटोन है। उन्हें बहुत दिनों तक पता ही नहीं चला कि मैं ही कुमार विश्वास हूं। ये गलत खबरें हैं कि मैं लोकप्रिय हूं। लोकप्रियता एक ऐसी चीज है जो आपके साथ घटित तो होनी चाहिए पर आप उसमें घटित नहीं होने चाहिए।
आजकल आपको धमकियां भी मिल रही हैं?
मेरी टिप्पणियों के कारण मुझे जान से मार देने की धमकियां भी मिल रही हैं। कुछ दिन पहले मैं मुंबई में बाल ठाकरे के खिलाफ बोल कर आया था तो भी मुझे बहुत धमकियां मिली। कुछ कवियों को लगता है कि मेरी लोकप्रियता की वजह से उनका नुकसान हुआ है पर ऐसा होता नहीं। किसी को मार देने से आपकी आयु नहीं बढ़ती।
आपके प्रिय कवि कौन है?
संस्कृत में कालीदास, हिन्दी में तो बहुत सारे कवि पसंद है। निराला बहुत पसंद है। गीतकारों में गोपाल दास नीरज बहुत प्रिय हैं। उर्दू में गालिब का बेइंतहा दीवाना हूं। नए शायरों में बशीर बद्र साहिब का लहज़ा और मुन्नवर राणा की बेबाकी और खुद्दारी बहुत पसंद है।
आप अपने पहले प्रेम के बारे में कुछ बताएं?
प्रेम मनुष्य की चेतना का अंश है। जिस दिन उसे अहसास होता है कि मेरे अलावा भी दुनिया में कोई है। तब वो उसका आंकलन करना शुरू करता है और उस प्रोसेस में उसको प्रेम हो जाता है। लोग सोचते हैं कि प्रेम में मिला क्या और खोया क्या। प्रेम अपने आप में ही पूर्ण है। प्यार के किस्से तो व्यक्ति को अहसास करवाने के लिए होते हैं। प्रेम करने के बाद लोग दुनिया को दूसरे नजरिए से देखना शुरू कर देते हैं। दुनिया उसके सामने खुल जाती है। मैं ऐसा मानता हूं जिसने प्रेम नहीं किया वो जिंदगी के वजूद से अछूता रह गया। उसकी स्थिति ठीक उस व्यक्ति जैसी है जो मंदिर के बाहर खड़ी नंदी की मूर्ति को ही भगवान समझ कर लौट आया हो।
आजकल प्रेम घटित तो हो रहा है पर उसे मान्यता क्यों नहीं मिल रही?
मनुष्य ने समाज का निर्माण ही इसीलिए किया था ताकि वो अच्छा जीवन जी सके। वो अकेला डरता था। कुछ वर्चस्ववादी लोग आगे आ आए हैं। दुर्भाग्य से ये ऐसा समय है जब सामाजिक नेतृत्व और संस्कृति दोनों हाशिए पर हैं। ऐसा हर युग में हुआ है पर हर बार एक सोशल लीडर भी आया है जिसने चीजों को सुधारा है। एक शेर है
कितने अवतार हुए कितने पैगंबर आए
तू ना आया तेरे पैगाम बराबर आए।
खुदाई पैगाम की तरह लोग आते रहते हैं। पिछले 50-60 साल से हमारे पास कोई सोशल लीडर नहीं है। हमारे पास चमत्कार दिखाने वाले बाबा तो बहुत है पर सही राह दिखाने वाला सोशल लीडर कोई नहीं है। जैसे इन दिनों बाबा रामदेव जी को ये भ्रम हुआ है कि अगर लोग उनके योग के कारण, उनके भगवे के कारण उनका सम्मान करते हैं तो इसके सहारे वो हिंदुस्तान की सत्ता पर कायम हो जाएंगे। वो जिस राष्ट्र निर्माण की बात कर रहे हैं वो राष्ट्र निर्माण लिमिटेड कंपनियों से नहीं होता, राष्ट्र निर्माण मंजन बेचने वाली दुकानों से नहीं होता। उनमें और महात्मा गांधी में एक ही अंतर हैं कि गांधी के पीछे बिरला चलते थे और आजकल के साधु बिरलाओं के पीछे चलते हैं। देश में सामाजिक नेतृत्व की कमी है जिस कारण ऐसा हो रहा है।
आप ने किन देशों में कविताएं सुनाई हैं?
अभी मैं अमरीका और कनाडा गया था। 40 दिनों के दौरान मैंने वहां करीब 10 प्रोग्राम किए।
कविता और गीत पढऩे के अंदाज से एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है? इससे बारे में क्या कहेंगे?
हां, शुरुआत तो है, पर अभी आप इसे अच्छी शुरुआत नहीं मान सकते। ये तब संभव होगा जब इसी फार्मेट में 10-20 लोग और आएं। एक आदमी के आने से ये नहीं माना जा सकता कि माहोल बदल गया। माहोल तो तब बदलेगा जब मेरे जैसे प्रस्तुति करने वाले बहुत से कवि होंगे।

Black in the white house!

Imran khan
Attension, the most dangerous virus is ready to destroy your computer’s hard disk. If you get a message on E-mail with ‘Black in the White house’ name’s attechment, never open it. This virus directly may enter in the hard disk and destroy whole the data permanently. This virus has been detected only three days before. Microsoft has declared it the most dangerous virus. Specially it comes on your E-mail in the name of your friend so that you may open it without delay. As soon as you open its attechment you may face disaster for your computer. You will see a torch on this attechment and its fire destroy the data of C drive.
This virus directly attacks on that part of the computer where the most important informations are kept safely. After that your hard disk will be useless and you have to change your hard disk. It is a matter of worry that nobody has its solution. There is no way to componsate the loss done by it.
Computer experts advice not to keep data in C drive and put the important data of hard disk somewhere else. If you get ‘Black in the White house’ name’s attechment with a mail, delete it as soon as possible and then restart your computer.

अपनी आवाज को बनाएं पहचान

अगर आप अपनी आवाज से लोगों को दिवाना बनाना चाहते हैं तो रेडियो जॉकी आपके लिए बिलकुल सही करियर साबित होगा। एफएम स्टेशनों की बढ़ती लोकप्रियता से युवाओं में आरजे बनने का क्रेज दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। वहीं भारत सरकार भी देश के विभिन्न हिस्सों में 5000 कम्युनिटी रेडियो स्थापित करना चाहती है जिससे युवाओं के लिए इस क्षेत्र में रोजगार की पूरी संभावना है।
इमरान खान
दिल्ली की मैट्रो रेल हो या लोकल बसें हर जगह आपको कानों में हेड फोन लगा रेडियो सुनते युवा दिख ही जाएंगे। मोबाइल की लोकप्रियता और उसमें रेडियो होने से हर वर्ग आजकल एफएम का दीवाना है। एफएम के बढ़ते प्रचलन से युवाओं में अपनी आवाज दूसरे लोगों तक पहुंचाने की भी प्रबल इच्छा है। आप भी कुछ ऐसा ही सोच रहे हैं तो रेडियो जॉकी आपके लिए सही रास्ता है। इसके लिए जरूरी है कि अच्छी आवाज के साथ ही आपको मनोरंजन करने की कला और लोगों से कम्युनिकेशन करने की तरकीबें भी आनी चाहिए।
आरजे बनने के लिए कुछ जरुरी गुण
अच्छी आवाज : आरजे बनने के लिए यूँ तो किसी खास डिप्लोमा या डिग्री की जरूरत नहीं, बस आपके पास अच्छी आवाज होनी चाहिए। आरजे मल्लिका बताती है कि इस क्षेत्र में केवल आप अपनी आवाज के जरिए दमदार पहचान बना सकते हैं। आपको अपनी आवाज के कल्पनाशील इस्तेमाल और उसके उतार-चढ़ाव के जरिए लोगों को प्रभावित करने की कला आनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि जिनकी आवाज पतली होती है वो आरजे नहीं बन सकते। कोई भी अपनी आवाज में बदलाव ला सकता है। मैं भी अभी तक अपनी आवाज पर काम कर रही हूं। कम्युनिटी रेडियो में काम करने का एक और फायदा है कि यहां शब्दों की बाउंडेशन होती है। आम जिंदगी में बोले जाने वाले शब्द भी हम कम ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि हमारे श्रोता ज्यादातर स्टूडेंट्स ही हैं। और अगर हम बंदिश में रहकर बोलना सीख लेंगे तो आगे चलकर हमें कोई परेशानी नहीं होगी।
भाषा और उच्चारण : हिन्दी व अंग्रेजी के साथ आपको स्थानीय भाषा का ज्ञान भी होना चाहिए। आजकल रेडियो पर जिस भाषा का इस्तेमाल किया जाता है वह ठीक हिंदी नहीं है। वह मिक्स भाषा है। उसमें हिन्दी के साथ अंग्रेजी तथा अन्य बोलियों को शामिल किया जाता है। फिर उच्चारण सही और साफ होना चाहिए।
जनरल अवेयरनेस : रेडियो सिर्फ गीत-संगीत सुनाने और मनोरंजन करने भर का माध्यम ही नहीं रह गया है। इसके जरिए दुनिया जहान की इन्फॉर्मेशंस और हलचलों की जानकारियाँ भी दी जाती हैं। इसलिए एक अच्छे आरजे में जनरल अवेयरनेस होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि वह न्यूज चैनल्स के साथ ही तमाम न्यूज पेपर्स और मैग्जीन्स को नियमित पढ़ता रहे और अपने को अपडेट रखे।
हमेशा खुश : आरजे का कोई समय निश्चित नहीं होता है। उसे प्रोग्राम प्रेजेंट करने के लिए कभी भी कॉल किया जा सकता है लिहाजा यह जरूरी है चाहे वो उदास हो या कुछ और माइक्रोफोन पर उसे हमेशा खुश और एक जिंदादिल आरजे बनना पड़ता है। क्योंकि सारा खेल ही आवाज का है लिहाजा आपकी आवाज ही आपके व्यक्तित्व का आईना होती है।
ये हैं फिल्मी आरजे : खासी चर्चित और हिट फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई में अभिनेत्री विद्या बालन की अदा और आवाज के खास उतार-चढ़ाव के जरिए बोलती हैं-गुड मॉर्निंग मुंबई कि मुन्नाभाई की तरह अक्खा मुंबई फ्लैट हो जाता है। फिल्म नमस्ते लंदन में प्रिटी जिंटा मजेदार शो प्रेजेंट करती हैं और स्टेशन की स्टार आरजे बन जाती हैं और अब तो आने वाली फिल्म रेडियो में गायक हिमेश रेशमिया भी रेडियो जॉकी के रोल में दिखाई देंगे। कमीने फिल्म के प्रमोशन के लिए शाहिद कपूर से लेकर विशाल भारद्वाज तक थोड़ी देर के लिए आरजे बन गए थे। यह दिल के दरवाजे खोलकर जी भरकर बोलने का करियर है।
सेंस ऑफ ह्यूमर : बोरिंग एंकरिग या होस्टिंग कौन पसंद करता है? लिहाजा अच्छे आरजे में सेंस ऑफ ह्यूमर का होना जरूरी है। वह अपने प्रोग्राम को स्तरीय हास्य से मजेदार बना सकता है। इस तरह वह अपनी एक यूएसपी बना सकता है।
फ्रेंडली : अच्छे आरजे बनने के लिए आप को लोगों से कम्युनिकेशन करने के लिए फ्रेंडली होना होगा यानी ज्यादा स्वाभाविक, ज्यादा अनौपचारिक और कोई भी बनावटीपन नहीं।
राइटिंग और प्रेजेंटिंग स्किल्स : अच्छा आरजे अपनी स्क्रिप्ट भी खुद लिखता है। इसलिए अपने प्रोग्राम या शो को दिलचस्प बनाने के लिए दिलचस्प अंदाज के साथ लिखना भी आना चाहिए और लिखने के बाद उसे उतने ही चुटीले अंदाज के साथ प्रस्तुत करना भी आना चाहिए।
म्यूजिक-लवर : कहने की जरूरत नहीं आरजे को म्यूजिक लवर होना चाहिए। उसे न केवल बॉलीवुड के गीत-संगीत की अपडेट जानकारी होना चाहिए बल्कि इंटरनेशनल म्यूजिक के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए। कौन सी फिल्में आ रही हैं, कौन से एलबम्स और कौन से गीत हिट हो रहे हैं, किस संगीतकार, गीतकार का अच्छा गीत कौन सा है, इसकी जानकारी उसे अच्छा प्रेजेंटर बना सकती है।
कम्युनिकेशन स्किल्स : आरजे को आम लोगों से लेकर सेलिब्रिटीज से बातचीत करना होती है लिहाजा कम्युनिकेशन स्किल्स होना चाहिए, ताकि वह बात को बेहतर ढंग से कह सके।
कम्युनिटी रेडियो से करें शुरुआत
दिल्ली युनिवर्सिटी के कम्युनिटी रेडियो की स्टेशन हेड विजय लक्ष्मी बताती हैं कि जिन युवाओं को आरजे के तौर पर अपनी पहचान बनानी है वो कम्युनिटी रेडियो से शुरुआत करें तो अच्छा हैं क्योंकि यहां युवाओं को अपनी प्रतिभा को निखारने का भरपूर मौका दिया जाता है। विद्यार्थी जो कोर्सेस करते हैं उनमें उनको प्रेक्टिकल ट्रेनिंग नहीं मिलती इसलिए जरुरी है कि वो या तो किसी कम्युनिटी रेडियो में इंर्टनशिप करें या फिर वहां बतौर ट्रेनी नौकरी भी कर सकते हैं। ऐसे स्थानों पर काम करने से उनमें हौंसला बढ़ता है जिससे वो बड़े से बड़े प्रेशर को फेस करने के काबिल बनते है। उन्होंने बताया कि भारत सरकार भी गांवों और शहरों में कम्युनिटी रेडियो की गिनती बढ़ाना चाहती है जिससे उन्हें इस क्षेत्र में रोजगार ढूंढने में भी कोई परेशानी नहीं होगी।
क्रिएटिव होना बेहद जरुरी
आरजे चिंतन बताती है कि रेडियो पर आपको अपनी क्रिएटिविटी दिखानी होगी। स्क्रिप्ट से लेकर कार्यक्रम प्रस्तुत करने में रचनात्मक होना चाहिए। इसके अलावा आरजे यदि कल्चरली एक्टिव होगा तो वह ज्यादा बेहतर ढंग से चीजों को प्रस्तुत कर सकेगा। युवाओं की इस क्षेत्र में सफलता का कारण भी है क्योंकि उनके पास जोश, नए विचार और नए कॉनसेप्ट होते हैं जो इस क्षेत्र के लिए बहुत जरूरी हैं। इसलिए उन्होंने इस क्षेत्र को चुना ताकि वो अपनी आवाज को दुनिया में फैला सके और काम को अपने तरीके से कर सके। चिंतन के मुताबिक अगर आप बड़े रेडियो स्टेशन में काम करते हैं तो ये एक ग्लैमरस जॉब भी है। लोग आपको जानते हैं आपको मिलते हैं ये काफी अच्छा लगता है।

जितना भी पढ़े मन लगाकर पढ़ें

आईएएस की परीक्षा में 487वां रैंक हासिल कर अपने गांव भानपुर जिला बाराबंकी का नाम रौशन करने वाले समीर पांडे से इमरान खान की बातचीत के कुछ अंश
आपको आई.ए.एस. बनने की प्रेरणा कहां से मिली?
मैं शुरू से ही दोस्तमिजाज रहा हूं। पढ़ाई में शुरू से ही अच्छे प्रदर्शन के बावजूद मेरा मन अपने अजीज मित्रों के साथ मंडली बाजी में ज्यादा लगता था। दोस्तों के बीच हमेशा ही बौद्धिक और सामाजिक विषयों पर बड़ी गरमागरम और मजेदार चर्चाएं होती थीं। लखनऊ शहर भी इस मामले में एक जिन्दा शहर है जहां मैने देश के स्थापित प्रबुद्ध जनों को न सिर्फ देखा, सुना और समझा बल्कि उनके साथ गम्भीर वैचारिक बहसों में भी भाग लिया। सामाजिक सक्रियता ने भी मुझे बहुत कुछ दिया। इसकी सकारात्मक-नकारात्मक शिक्षाओं ने भी मेरी समझ को तराशने में बड़ी भूमिका निभाई। यही वह पृष्ठिभूमि थी जिसने मुझे अध्ययन की ओर प्रेरित किया। मेरे कुछ मित्र काफी पहले से सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे थे। लेकिन मेरा मन साहित्य में ही ज्यादा लगता था। मै विश्वविद्यालय में शिक्षक बनना चाहता था इसलिए शुरू में मुझे यह क्षेत्र अच्छा नहीं लगता था। लेकिन बाद में दोस्तों के जोर देने पर मुझे भी लगा कि चलो तैयारी कर ली जाए। एमए फस्ट ईयर से ही मैंने तैयारी शुरू कर दी थी।
ये आपका पहला अटेम्प्ट था?
नहीं, ये मेरा दूसरा अटेम्ट था। पहली बार में मैं प्री नहीं क्लीयर कर पाया था। दरअसल पहली बार जब मैने यह इक्जाम दिया तो मैं अपने भविष्य को लेकर बड़ी उधेड़बुन में था। मुझे लगता था जैसे मेरी पुरानी दुनिया मुझसे दूर होती जा रही है। शायद यही मुख्य वजह थी कि मैं प्री भी क्लीयर नहीं कर पाया। मैंने लखनऊ में प्रयत्न गाइडेन्स में तैयारी की। वहां का माहौर काफी अच्छा है। अनमोल सर ने न सिर्फ मेरी अच्छी तैयारी करवाई बल्कि मेरी उधेड़बुन को भी हल करने में भी मेरी मदद की। इस बार मैंने पूरी मेहनत से पढ़ाई की और दोनों क्लीयर कर लिया।
दिन में कितने घंटे पढ़ाई किया करते थे आप?
मैं ज्यादा नहीं पढ़ता था। दिन में 6-7 घंटे ही पढ़ता था पर जितना पढ़ता था मन लगाकर पढ़ता था। मुझे ऐसा लगता है कि इस इक्जाम के लिए सिर्फ घोंटा लगाने से काम नहीं चलता। जितना भी पढ़ें मन लगाकर पढ़ें तो वही आपके लिए ज्यादा मददगार होगा।
खाली समय में क्या करते थे?
साहित्य पढ़ता था। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि हमेशा से मुझे पसंद रहे हैं। मैं हिन्दी में पीएचडी कर रहा हूं, तो तैयारी के बाद जो भी समय बचता था, उस समय या तो साहित्य की किताबें पढ़ता था, अपनी पीएचडी पर काम करता था या फिर अपने परिवार और दोस्तों के बीच समय बिताता था।
आगे के लिए आपने क्या चुना है?
मैंने आईआरएस को चुना है। अब देखते हैं कौन सा विभाग मिलता है।
आईएएस पास करने के बाद जब गांव पहुंचे तो कैसा महसूस हुआ?
परीक्षा परिणाम आने के बाद मैं लखनऊ से अपने गांव पहुंचा। मुझे यह नहीं पता था कि गांव वाले रास्ते में मेरा इन्तजार कर रहे हैं। ज्यों ही मैं अपने गांव के पास बस से उतरा तो देखा कि मेरे गांव के करीब 150 लोग गांव के पास की सड़क पर फूल, माला और मिठाइयां लिए मेरा इन्तजार कर रहे हैं। मेरे बस से उतरते ही मुझे सबसे पहले बधाई देने के लिए सभी में होड़ सी मच गयी। गांव वालों का प्यार देखकर मेरा मन उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया। हमारे गांव में साक्षरता दर बहुत कम है इसलिए गांव वालों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। वे लोग अपने रोज-रोज के झगड़े भूलकर आज खुश थे। यह देखकर मैं जोर से हंस पड़ा।
अब आपकी साहित्यक अभिरुचि पर असर नहीं पड़ेगा?
नहीं ऐसा नहीं है। जरूरी नहीं है कि अध्यापक ही साहित्य पर काम करें। हम किसी भी फील्ड में रहकर साहित्य पर काम कर सकते हैं। मुझे तो कम से कम यही लगता है। मैं तो यही चाहूंगा कि खुदा करे आपकी बात झूठी साबित हो जाए।
आईएएस की तैयारी के लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट से जुडऩा जरुरी है?
देखिए, अगर आप मजबूत इरादे के साथ मन लगाकर तैयारी करें तो आपको किसी कोचिंग की जरूरत नहीं है। आप बिना कोचिंग इंस्टीट्यूट से जुड़े भी तैयारी कर सकते हैं। पर अक्सर ऐसा होता है कि कई पहलुओं पर हम सोच ही नहीं पाते और वहीं एग्जाम में आ जाते हैं। कोचिंग इंस्टीट्यूट में जो अध्यापक कोचिंग देते हैं उन्हें तमाम विषयों पर अच्छी जानकारी होती है। महंगे कोचिंग इंस्टीट्यूट ज्वाइन करने के बजाय अच्छे कोचिंग इंस्टीट्यूट से जुडऩा चाहिए। सीधे किसी इंस्टीट्यूट को ज्वाइन करने के बजाय दो-तीन दिन वहां पढ़कर देखना चाहिए।
जो युवा आईएएस करने की सोच रहे हैं उन्हें क्या कहना चाहेंगे?
यही कहूंगा कि मन लगाकर पढ़ें। अखबार, मैगजीन और न्यूज चैनल ध्यान से देखें। करंट अफेयर्स पर विशेष ध्यान रखें क्योंकि जनरल स्टडी में ज्यादातर सवाल इसे विषय से लिए जाते हैं। और सबसे अहम बात जिन्हें जल्दी-जल्दी धन का महल खड़ा करनी की चिन्ता हो वे इस क्षेत्र में न आयें तो बड़ी मेहरबानी होगी। जनता के प्रति सेवाभाव रखने वालों को ही इस क्षेत्र में आना चाहिए।

फुटबाल : प्रतिभा है पर रास्ता नहीं

एक तरफ सारी दुनिया पर फुटबाल का बुखार है तो दूसरी तरफ दिन रात पसीना बहाते हमारे खिलाड़ी। फुटबाल खेलने के लिए जोश, फुर्ती और मजबूत शरीर की जरूरत होती है जो कि भारत के खिलाडिय़ों में प्र्याप्त है। फुटबाल को लेकर लोगों की दीवानगी भी कम नहीं है। फिर आखिर क्या वजह है कि इतने महत्वपूर्ण खेल के प्रति हमारे खेल संस्थान और सरकारों का रवैया बहुत ही बेरूखी भरा है। जिससे हम फुटबाल की दुनिया में 132वें पायदान पर हैं। कौन है इसका जिम्मेदार? और क्या इसकी सूरत बदली जा सकती है? फुटबाल के अहम पहलुओं पर नजर डालती इमरान खान की एक रिपोर्ट
एक अरब से ज्यादा की आबादी और एशिया महाद्वीप की ताकत समझे जाने वाले भारत का विश्व कप फुटबाल में 132वां स्थान क्यों हैं? फुटबाल के लिए हमें जिन चीजों की जरूरत है वो सब है हमारे पास, फिर हम दुनिया के बाकी देशों के बराबर क्यों नहीं खड़े हो पा रहे हैं?
शारीरिक क्षमता : फुटबाल के खिलाडिय़ों मेंताकत, जोश और फुर्ती होनी जरुरी है। यह सब खूबियां हमारे खिलाडिय़ों में मौजूद हैं। उत्तर प्रदेश, उतरांखड, बंगाल या फिर पंजाब के खिलाड़ी अपने खेल कौशल के लिए पहले ही मशहूर हैं। उनके जोश और फुर्ती के सामने बड़े -बड़े पानी भरते हैं। फुटबाल खेलने के लिए टीम भावना भी सबसे अहम है। वो भी हमारे खिलाडिय़ों में कूट-कूट कर भरी हैं। जहां तक सामूहिक भावना का सवाल है तो वह भी हमारे समाज का काफी लम्बे अर्से से हिस्सा रहा है। सारी खूबियां मौजूद है हमारे खिलाडिय़ों में। लेकिन यह अजीबोगरीब संयोग है कि हमारे यहां वन मैन गेम क्रिकेट को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है जबकि फुटबाल की स्थिति दोयम दर्जे की है।
खेल के मैदान : फुटबाल खेलने के लिए क्रिकेट की तरह न बढिय़ा पिच की जरूरत है और ना ही हॉकी की तरह अच्छे कोर्ट की। इसके लिए तो सिर्फ समतल मैदान की काफी है। जो यूपी, मध्यप्रदेश और पंजाब में प्र्याप्त है। उत्तराखंड पहाड़ी प्रदेश होने के बावजूद वहां का बच्चा-बच्चा फुटबाल का दीवाना है। इसके बावजूद हम फुटबाल में कोई कीर्तिमान नहीं स्थापित कर रहे हैं। यूपी और पंजाब की मिट्टी भी ऐसी है जिससे फुटबाल के लिए अच्छे खेल के मैदान बनाए जा सकते हैं पर जरूरत है ध्यान देने की।
जरूरत है स्पांसरों की : अगर सरकार फुटबाल को प्रमोट करे तो स्पांसरों की भी कमी नहीं रहेगी। दूसरे खिलाडिय़ों की तुलना में फुटबाल के खिलाडिय़ों को बहुत कम पैसा दिया जाता है। स्पांसर अन्य खेलों पर तो पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं पर फुटबाल में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा क्योंकि सरकार ही फुटबाल के साथ भेदभाव कर रही है। सरकार को चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा फुटबाल एकेडमियां खोलकर खिलाडिय़ों को प्लेटफार्म दे जिससे उनकी खेल क्षमता तो निखरेगी ही देश को भी फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी मिल सकेंगे। घर रहकर खिलाड़ी प्रैक्टिस पर उतना समय नहीं दे पाते जितना आवश्यक है। एकेडमियों में खेलने वाले खिलाड़ी दूसरे खिलाडिय़ों के मुकाबले ज्यादा तेज होतें हैं। खिलाडिय़ों को सामाजिक सुरक्षा का डर भी है। फुटबाल के खिलाडिय़ों को आसानी से अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती जिससे उनमें सामाजिक असुरक्षा का भी खतरा रहता है। यह भी एक अहम पहलू है कि देश को अच्छे फुटबाल खिलाड़ी नहीं मिल रहे।
फीफा के लिए कर चुके हैं क्वालीफाई : आज फुटबाल जगत में भारत की हालत जैसी भी है। इस खेल से हमारा एक ऐतिहासिक रिश्ता है और इसी रिश्ते की वजह से भारतीय टीम ने वर्ष 1950 के फीफा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया था। हालांकि भारतीय टीम वहां नहीं गई, क्योंकि भारतीय खिलाड़ी जूता पहनकर खेलने के आदी नहीं थे, जबकि फीफा के नियमों के तहत नंगे पांव फुटबाल नहीं खेला जा सकता था। इस पहलू पर भी विचार की जरूरत है।
मां-बाप को भी बदलनी होगी सोच : मां-बाप भी अपनी सोच बदलें और अपने बच्चे को फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित करें ताकि भारत को फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी मिल सकें। भारत का हरेक पिता अपने बच्चे को सचिन ही बनाना चाहता है, कोई फुटबाल की ओर ध्यान ही नहीं दे रहा। अगर मां-बाप अपने सोचने का तरीका बदलें और बच्चों की रुचि फुटबाल में बढ़ाएं तो हमें भी फुटबाल में आगे जाने से कोई नहीं रोक सकता।
टूर्नामेंटों की है कमी : देश के लिए नेशनल लेवल के टूर्नामेंट खेल चुके प्रहलाद सिंह रावत कहते हैं कि अन्य खेलों की तरह फुटबाल के भी कई राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट होने चाहिए ताकि खिलाड़ी ज्यादा से ज्यादा मैच खेलें जिससे उनके आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हो। फुटबाल के नाम पर हमारे पास कुछ गिने चुने ही राष्ट्रीय टूर्नामेंट हैं इसका कारण यही है कि फुटबाल में लोगों की दिलचस्पी कम है जिससे लोग इसमें पैसा नहीं लगा रहे। उन्होंने बताया कि यूपी, दिल्ली और पंजाब में ऐसी एकेडमियों की कमी है जो ज्यादा से ज्यादा खिलाड़ी भर्ती करके उनको ट्रेनिंग और अन्य सुविधाएं मुहैया करवा सकें। सब तो क्रिकेट खेल नहीं सकते इसलिए हमें फुटबाल के खिलाडिय़ों की भी जरूरत है। फुटबाल मेहनत का खेल है इसके लिए कड़े अभ्यास की जरूरत है। इसके लिए खिलाडिय़ों को कम से कम 6 घंटे रोजाना प्रैक्टिस की जरूरत है। खिलाड़ी शुरू से ही पढ़ाई और अन्य कामों में इतना व्यस्त हो जाता है कि वो फुटबाल के लिए समय ही नहीं दे पाता। खिलाडिय़ों को पसीना बहाने की जरूरत है। फुटबाल में पिछड़े रहने का एक अन्य कारण यह है कि विदेशों में तीन-चार खिलाडिय़ों पर एक कोच होता है पर यहां ऐसा नहीं है। हमारा एक कोच 20-25 खिलाडिय़ों को ट्रेनिंग देता है जिससे वो उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाता। यूरोप में तो हरेक प्रकार के खिलाड़ी के लिए अलग-अलग कोच हैं जैसे मिड फिल्डर के लिए अलग, स्ट्राइकर के लिए अलग, पर हमारे यहां एक ही कोच हर तरह के खिलाडिय़ों को ट्रेनिंग देता है।
क्लबों की है कमी : यूपी, दिल्ली में बड़े फुटबाल क्लबों की भी कमी है जो अच्छे खिलाडिय़ों को मौका दे सकें। हमारे खिलाडिय़ों को दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है। दूसरे राज्यों की एकेडमियां पहले अपने खिलाडिय़ों को मौका देना चाहती हैं बाद में अन्य को। फिर ऐसे में खिलाड़ी क्या करें। खिलाडिय़ों के मां-बाप को भी लगता है कि फुटबाल में पैसा नहीं इसलिए वो अपने बच्चों को फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित ही नहीं करते । अगर फुटबाल की बड़ी एकेडमियां खुलती हैं और ये खिलाडिय़ों को अच्छा पैसा देते हैं तो बच्चों के मां-बाप भी इस ओर ध्यान देंगे। यूरोप, ब्राजील, इटली और दुनिया के अन्य देशों में खेल के मैदान उच्च क्वालिटी के हैं पर हमारी सरकार तो क्रिकेट के लिए 22 गज की पिच तैयार करने में ही जुटी रहती है, ऐसे में अगर खिलाडिय़ों को अच्छा मैदान मुहैया नहीं होगा तो उनके अभ्यास में बाधा तो आयेगी ही।
बदलनी होगी नीति : सरकार अगर ध्यान दे तो स्कूल स्तर पर ही फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी तैयार किये जा सकते हैं। स्कूल स्तर पर ही बच्चों की मानसिकता ऐसी बना दी जाती है कि वो क्रिकेट के सिवा किसी खेल को खेल ही नहीं समझते है। स्कूलों में फुटबाल का हाल भी वैसा ही है। स्कूल में पढ़ाई का सिस्टम भी ऐसा है कि एक बच्चे के पास पढ़ाई के बाद ज्यादा समय बचता ही नहीं कि वो प्रैक्टिस को प्र्याप्त समय दे सके। सरकार का चाहिए की वो पढ़ाई की स्थिति में भी सुधार करे जिससे खेल में रुचि रखने वाले बच्चों को प्रैक्टिस के लिए पर्याप्त समय मिल सके। दुनिया के दूसरे देशों में पांच-छह साल की उम्र में ही खिलाडिय़ों को सरकार की तरफ से खोली एकेडमियों में रखकर उन्हें सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं। जिससे 17-18 साल की उम्र तक वो अच्छे खिलाड़ी बन जाते हैं। अगर यहां भी सरकार खिलाडिय़ों को शुरू से ही सुविधाएं मुहैया करवाए जिससे उन्हें अच्छी शुरुआत मिले तो हमारे पास भी अच्छे खिलाड़ी होंगे।
प्रतिभा की नहीं है कमी : देश में प्रतिभा की कमी नहीं है। हमारे युवा खिलाडिय़ों में हर वो क्षमता है जो एक अच्छे फुटबाल खिलाड़ी में होनी चाहिए। जरूरत है सिर्फ उस क्षमता को तराशने की, उन्हें सही वक्त देने की। देश भर में हजारों ऐसे खिलाड़ी हंै जो दिन रात पसीना बहा रहे हैं और एक दिन फुटबाल की दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व भी करेंगे। ये खिलाड़ी जोश से लबरेज हैं सिर्फ इन्हें सही मार्गदर्शक की जरूरत है। फुटबाल की दुनिया में हम चमके तो पर फुटबाल खेलने नहीं बल्कि फुटबाल बनाने में। भारत में हजारों ऐसी कंपनियां है जो दुनिया के लिए फुटबाल बनाती हंै जिससे बाकी देशों के खिलाड़ी खेलते हैं लेकिन हमारे देश के लगभग 70 फीसदी हिस्से को एक अदद फुटबाल भी नसीब नहीं है।
बाकी खेलों से है सस्ता : अन्य खेलों के मुकाबले फुटबाल काफी सस्ता खेल है। इसको खेलने के लिए ज्यादा सामान की जरूरत नहीं है जिससे खर्च भी ज्यादा नहीं आता। भारत में सबसे ज्यादा फुटबाल कोलकाता और उत्तराखंड में खेला जाता है। कोलकाता में तो फुटबाल की स्थिति थोड़ी ठीक है पर उत्तराखंड में स्थिति चिंताजनक है। अगर इसे गरीबों का खेल कहें तो भी कोई गलत बात नहीं होगी क्योंकि एक फुटबाल से 11 लोग खेल सकते हैं और उस फुटबाल की कीमत भी बहुत ज्यादा नहीं होती है। अगर बच्चों को आर्थिक सहायता और अच्छे कोच मुहैया करवाए जाएं तो वो भी देश का नाम रौशन कर सकते हैं।
गिने चुने नाम ही आए सामने : आईएम विजयानन, सुनील चेतरी, महेश गावली, सनमुगम वेंकटेश-ये वो नाम है जो फुटबाल की दुनिया में तो चमके तो पर लोगों की जुबां पर नहीं आ सके। राष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने कई इनाम जीते पर भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं ले जा सके। फुटबाल की दुनिया में भारत के लिए एक ही नाम बहुत चमका, वो है बाइचुंग भूटिया। बाइचूंग भूटिया फुटबाल को लोकप्रिय बनाने के लिए आजकल जोश के साथ काम तो कर रहे हैं पर इस बात से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि वो खिलाड़ी कम और सेलेब्रिटी ज्यादा हैं। भारत के खिलाडिय़ों के पास खेलने के अतिरक्ति इतने काम होते हैं कि वो खेल को लगभग भूल ही जाते हैं। मशहूर होने पर उसको विज्ञापन इतने मिलने शुरू हो जाते हैं कि वो उसकी शूटिंग में ही सारा समय व्यस्त रहतें है। इससे खेल पर क्या प्रभाव पड़ता है वह सबके सामने है। सरकार को चाहिए कि वह इस ओर भी ध्यान दे ताकि फुटबाल को हमारे देश में भी उतनी महत्ता मिले जितनी क्रिकेट को मिल रही है।

Tuesday, July 6, 2010

महंगाई के कारण गर्क हो रहा जीवन

देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन में आज अमरजीत कौर एक जाना पहचाना नाम है। वे एटक की महासचिव हैं। उन्होंने एक कदम आगे के संवाददाता इमरान खान से तमाम विषयों पर बहुत खुलकर बात की। प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंश
पंजाब में आप कहां से हैं?
मेरी पैदाइश गुरदासपुर जिले की है। तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई मैंने वहीं की है, फिर हम दिल्ली आ गए थे। कालेज की पढ़ाई मैंने दिल्ली युनिवर्सिटी से की है। मेरी शादी पंजाब में हुई उसके बाद से मैं पंजाब और दिल्ली दोनों जगह रहती हूं।
पढ़ाई के दौरान आप छात्र संगठनों से जुड़ गई थीं?
दरअसल मेरे पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। उनसे मैंने आजादी आंदोलन के बारे में काफी कुछ सीखा। इसके अलावा और भी आन्दोलनकारियों के जीवन को बचपन में ही बहुत नजदीकी से देखा। उनके साहस, साफगोई, और इमानदारी ने मेरे अन्दर सामाजिक कामों के प्रति आकर्षण पैदा किया। इससे के बाद मेरा झुकाव क्रांतिकारी किताबें पढऩे की ओर हुआ। ऐसे परिवेश ने मुझे शुरू से ही क्रांतिकारी बना दिया। उसी समय से देश के लिए कुछ करने का जज्बा पैदा हुआ। लोगों के काम आना, देश की सेवा करना, ये सोच शुरू हुई। नतीजे के तौर पर स्कूल के समय से ही मैंने काम शुरू कर दिया था। जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी तो मेरी लीडरशिप में पहली हड़ताल हुई। लड़कियों का स्कूल था। उस एक हड़ताल ने मुझे काफी कुछ सिखाया। शुरू से ही संघर्षों से जुडऩे के बाद बहुत सी स्टूडेंट संगठनों ने मुझे अपने साथ जोडऩा चाहा मगर मेरा झुकाव उस तरफ था जो किसानों, मजदूरों और गरीबों को मदद करता है। उसी समय से मैं कम्युनिस्ट विचारधारा की तरफ आकर्षित हुई।
ट्रेड यूनियन में एक कार्यकर्ता के तौर पर जुड़ीं या सीधा आपको पद दिया गया?
युनिवर्सिटी की पढ़ाई के दौरान ही मेरा झुकाव महिलाओं व मजदूरों की तरफ बढ़ गया था। 1986 में जब मैंने स्टूडेंट आंदोलन से रिटायरमेंट लेने के बाद मैं पूरी तरह से ट्रेड यूनियन और महिला आंदोलन से जुड़ गई। शुरू में तो एक कार्यकर्ता के तौर पर ही जुड़ी थी। पूरे प्रोसेस को कंप्लीट करने के बाद ही आप एक आर्गेनाइजर के रुप में मर्ज होते हैं। पहले ऐक्टिविस्ट फिर आरगेनाइजर उसके बाद मुझे जिम्मेदारी दी गई कि मैं किसी सेक्शन को आरगेनाइज करूं। उसके बाद मुझे महिला आंदोलन की लीडरशिप भी मिली और फिर ट्रेड यूनियन की स्टेट बॉडी की लीडरशिप में भी शामिल किया गया। 1994 में मैं ऐटक की नेशनल सेक्रेटरी बनी। उसके बाद मुझे चाइल्ड लेबर का भी चार्ज दिया गया। मैं दिल्ली स्टेट की पार्टी सेक्रेटरी हूं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की टाप बॉडी में भी हूं।
इतने काम में तालमेल कैसे बैठाती हैं?
जब दिल में किसी के लिए कुछ करने का जुनून हो तो सब हो जाता है। ट्रेड यूनियन एक वर्किंग क्लास मूवमैंट है और कम्युनिस्ट आंदोलन एक वर्किंग क्लास पॉलिटिक्स। विचार आपको ताकत देते हंै कि वर्करों के अधिकारों के लिए लडऩा है फिर आपकी चैरिटी की सोच नहीं रहती।
माक्र्सवादी विचारधारा के हमारे देश में इतने संगठन हैं, क्या इनको एक प्लेटफार्म पर नहीं लाया जा सकता?
देखिए, माक्र्सवाद की विचारधारा है तो एक ही, पर जब हिंदुस्तान में इसको अप्लाई करने की बात आती है तो उसमें सबकी सोच अलग-अलग है। देश यही है, लोग यही है, पर देश का विकास कहां हैं, देश की विभिन्नताएं कैसी है, मान्यताएं कैसी हैं यह एक अलग बात है। मंहगाई के मुद्दे पर हम एक हैं, गरीबों के हक की लड़ाई के मुद्दों पर हम एक हैं। सत्ता में कैसे आना है, सत्ता में मजदूरों का कैसे बोलबाला हो सिर्फ इसी सोच में फर्क है। लेकिन जहां सोच में फर्क हैं मुझे लगता है वहां भी प्रयास करना चाहिए। पिछले साल से हम लगातार कोशिश कर रहे हैं कि सभी ट्रेड यूनियन को एक प्लेटफार्म पर लाएं।
सरकार दिन प्रतिदिन महंगाई बढ़ा रही है, इस पर क्या कहेंगी?
सरकार बेतहाशा महंगाई बढ़ा रही है। पार्टियों के विरोध के बाद भी सरकार बेशर्मी से महंगाई बढ़ा रही हैं। लोगों की आमदनी तो कम हो रही है क्योंकि सरकार उनकी जेबों पर टैक्स लगा रही है। इससे जीवन स्तर स्तर गिर रहा हैं। महंगाई ने आम जनता का जीवन गर्क कर दिया है।
मजदूरों के लिए जो एनजीओ काम कर रहे हैं पैसा वो पूंजीपति देशों से लेते हैं और साम्राज्यवाद के नाम पर उन्हीं के खिलाफ बोलते हैं। आपकी क्या राय है?
अगर कोई अमेरिका, ब्रिटेन से पैसा ले रहा है और फिर सम्राज्यवाद का विरोध कर रहा है तो ये दोगली नीति है। आप देखिए जो एनजीओ विदेशी पैसे से काम कर रहे हैं उनका एजेंडा हर छह महीने पर बदलता रहता है। जो फंड गिवर है वो ही एजेंडा तय करता है। अगर पैसे देने वाला ही एजेंडा तय करेगा तो ना मजदूर आंदोलन आगे बढ़ाया जा सकता है, ना ही किसान आंदोलन।
सीपीआई और जनसंघ एक ही समय में बनें। माक्र्सवाद की सही विचारधारा होने के बावजूद सीपीआई का आधार सिकुड़ता गया जबकि साम्प्रदायिक ताकतें देश में नंगा नाच कर रही हैं? ऐसा क्यों हो रहा है?
1925 में जब सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन की सोच रखने वाली पार्टी जब अस्तित्व में आई तो उसी समय प्रतिक्रांतिवादी और हिटलर के फांसीवाद से प्रेरणा लेने वाली जनसंघ का जन्म हुआ। आज वही काम आरएसएस कर रही है। आरएसएस हजारों साल से चल रहे अन्धविश्वास को आगे बढ़ाने का काम कर रही है। क्रान्तिकारी ताकतों के खिलाफ एक जमीन यहां पहले से मौजूद है। इसी जमीन पर आरएसएस जैसे संगठन खड़े होते हैं। ऐसे संगठन पूंजीवाद के लिए विचारधात्मक खाद पानी मुहैया करवाते हैं। आरएसएस जैसे संगठनों की सोच गैर वैज्ञानिक है, जो जातिवाद और अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं। हमको इन सबके विरुद्ध खड़े होना है। हमने देश को आजाद कराने के बाद कैसा समाज बनाना है उस लड़ाई को शुरू किया। अंग्रेज जब हमें दो हिस्सों में बांटना चाहते थे तो आरएसएस ने हिंदूवाद के नाम पर उसमें अहम भूमिका निभाई। नतीजे के तौर पर गांधी जी की हत्या हुई। देश आजाद होने के बाद से वामपंथी लोग मजदूरों के लिए लड़ रहे हैं, और देश के लोगों को आहिस्ता-आहिस्ता समाजवाद की तरफ भी मोड़ रहे हैं। समाज में मौजूद गंदगी को बढ़ाना मुश्किल नहीं है उसको हटाकर नए रास्ते बनाना मुश्किल है। हम एमएलए और एमपी की लड़ाई में बहुत पीछे रह गए मगर देश के सामाजिक, आर्थिक ढांचे के अंदर लोगों के लिए जगह बनाने की लड़ाई में हमें कामयाबी मिली है। कम्युनिस्ट आंदोलन के तेजी से न बढऩे का एक कारण उसका बिखराव भी है। सीपीआई से कुछ लोगों ने सीपीएम बना ली फिर सीपीएम से नक्सलवाड़ी के बाद सीपीआई एमएल बन गयी। उनमें से कुछ लोगों ने बाद में हथियारबन्द लड़ाई शुरू कर दी, आज भी उन्होंने जंगलों को नहीं छोड़ा है वे आज भी लड़ रहे हैं। उन्हें आप माओवादी के रुप में जानते हैं। वे अपने रास्ते से भटक गये हैं। इन्हीं सब कारणों से हम कमजोर हुए। जो मालेगांव में हुआ है, जो गुजरात में हुआ है, जो राजस्थान के अंदर बम विस्फोट हुआ है जिसमें सीधे-सीधे हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों का हाथ है। ऐसे मसलों को उठाया ही नहीं जाता। आखिर क्यों? किसी आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है। भाजपा और उसके दूसरे आनुषांगिक संगठन अमेरिका की भाषा बोलते हैं। वे सारे मुस्लिमों को ही आतंकवादी बता देते हैं। बहुत लम्बे समय तक उन्होंने आरएसएस के माध्यम यह जहर समाज में घोला है। आज वे उसकी फसल काटने का काम कर रहे हैं।
आपकी पार्टी के अलावा भी बहुत सी पार्टियां व संगठन मजदूरों के हक के लिए लड़ रहे हैं। बात इमानदारी या बेइमानी की नहीं है, पर आप उनसे अलग कैसे हैं?
मजदूरों के छोटे-मोटे हकों के लिए तो सभी लड़ रहे हैं पर हमारा लक्ष्य मजदूरों को सत्ता में लाना है। यही फर्क है उनमें और हममें। हम मजदूरों की भागीदारी सत्ता में बढ़ाना चाहते हैं जो पूंजीवाद के खात्मे के बाद ही होगी। इसके बाद ही किसान खुशहाल हो सकेगा।
क्या समाजवाद सिर्फ आर्थिक लड़ाइयां लडऩे से ही आएगा?
नहीं, ऐसा नहीं है। आर्थिक लड़ाइयां पूरी लड़ाई का सिर्फ एक पहलू हैं। सोच की भी लड़ाई है। इसलिए सांस्कृतिक लड़ाइयां भी जरूरी हैं। सामाजिक परिवर्तनों की लड़ाइयां भी जरूरी हैं। आधी आबादी महिलाओं की है। अगर महिला की भागीदारी सियासत में करनी है और समाजवाद लाना है तो इस आधी आबादी की भागीदारी कैसे होगी, उसकी जिंदगी के लिए भी जो बराबरी के आयाम है उसकी लड़ाई लडऩी होगी।
इलेक्शन के समय आपकी पार्टी भी विद्यार्थियों और मजदूरों को प्रचार के लिए लगाती हैं। आप इसे कहां तक ठीक मानती हैं?
प्रचार में तो सबको लगना ही चाहिए। जब चुनाव आता है तो चुनाव की प्रक्रिया में तो सभी को शामिल होना चाहिए। हम यह तो नहीं कहते कि हम जनवादी चुनावी प्रक्रिया को नहीं मानते, मगर ऐसा नहीं है। इसलिए जब चुनाव की प्रक्रिया होगी तो हम सबको ही कहेंगे कि चुनाव में उतरें।
जब आप पिछड़ीं महिलाओं के बीच काम करती हैं तो आपको क्या परेशानियां आती हैं?
देखिए, परेशानी तो होगी ही क्योंकि अशिक्षा बहुत है, अज्ञानता बहुत है। देश के हालात बहुत खराब हैं। दूर-दराज के इलाकों में जाकर कहना, कि तुम संगठित हो जाओ और लड़ लो, बहुत मुश्किल है। हम तो कह कर आ जाएंगे, पर जो महिलाएं चारों तरफ से अपने विरोधियों से घिरी हैं, जो देख रही हैं कि इलाके की पुलिस भी गुंडों को सलाम करती है, उस महिला को हम सिर्फ प्रवचन दे कर चले आएं ये सही नहीं है। इसलिए जो दबे हुए हिस्से हैं उनमें साहस पैदा करना, उन्हें बताना कि तुम अकेले-अकेले नहीं लड़ सकते हो, तुम्हें संगठित होना ही होगा। जो समाजवाद लाने की बात करते हैं उनकों महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करनी ही होगी। ट्रेड यूनियन की आर्थिक लड़ाई सामाजिक लड़ाई में परिवर्तित तभी होगी एक आंदोलन दूसरे आंदोलन की महत्ता समझेगा।
मजदूर संगठन में जब पुरुष और महिला साथ काम करते हैं तो क्या पुरुष मजदूरों की पुरुषवादी सोच काम में रुकावट बनती है?
पुरुष प्रधान समाज की पुरुषवादी सोच तो सब जगह आती है। चाहे आप वर्किंग क्लास पॉलिटिक्स करें या मिडल क्लास की। आपको अपने आप को डी क्लास करना होगा। जो पुरुषप्रधान समाज की सोच हमारे संस्कारों, रीति रिवाजों और त्योहारों में बसी हुई है। हमारी रोजमर्रा की भाषा में घुसी हुई है। वो हमें परिवार की परवरिश से मिलती है। इसके खिलाफ चौतरफा लड़ाई लडऩी होगी।
मजदूरों के हकों के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है, उनसे ज्यादा काम करवाया जाता है, ओवर टाइम नहीं मिलता। उसके बारे में आपका संगठन क्या कर रहा हैं?
हां, ये समस्या तो देश में बहुत बड़े पैमाने पर है। मजदूरों से 12 से 14 घंटे तक काम लिया जा रहा है। श्रम कानून का सीधे-सीधे उल्लघंन हो रहा है। असंगठित क्षेत्र में तो यह 100 फीसद है। संगठित क्षेत्र में जो गर्वमेंट सेक्टर है, वहां भी सरकार ठेके पर काम दे रही है। उनसे ज्यादा काम करवाया जा रहा है। जब सरकार ही कानूनों का उल्लंघन कर रही है तो पब्लिक सेक्टर में तो होगा ही। इस पर ट्रेड यूनियन लड़ रही है। सरकार हमें लडऩें भी कहां दे रही है। सरकार तो यूनियन बनाने का ही विरोध कर रही है। यूनियन बनाना जो कानूनी तौर पर हमारा अधिकार है वही हमसे छीना जा रहा है, तो हम सरकार से और क्या उम्मीद कर सकते हैं।
सरकार तेजी से विभागों का निजीकरण कर रही है। इसके बारे में क्या कहेंगी?
सरकार ने क्लास फोर तो खत्म ही कर दिया है। सारा काम ठेके पर दे दिया है। कालेजों में, सरकारी दफ्तरों में कहीं भी देखिए क्लास फोर का काम ठेके पर दे दिया गया है। सरकार की पूंजीवादी सोच का ही यह नतीजा है। सरकार अपना मुनाफा कम नहीं करना चाहती बल्कि गरीबों का हक मारने पर तूली हुई है।