Wednesday, July 7, 2010

फुटबाल : प्रतिभा है पर रास्ता नहीं

एक तरफ सारी दुनिया पर फुटबाल का बुखार है तो दूसरी तरफ दिन रात पसीना बहाते हमारे खिलाड़ी। फुटबाल खेलने के लिए जोश, फुर्ती और मजबूत शरीर की जरूरत होती है जो कि भारत के खिलाडिय़ों में प्र्याप्त है। फुटबाल को लेकर लोगों की दीवानगी भी कम नहीं है। फिर आखिर क्या वजह है कि इतने महत्वपूर्ण खेल के प्रति हमारे खेल संस्थान और सरकारों का रवैया बहुत ही बेरूखी भरा है। जिससे हम फुटबाल की दुनिया में 132वें पायदान पर हैं। कौन है इसका जिम्मेदार? और क्या इसकी सूरत बदली जा सकती है? फुटबाल के अहम पहलुओं पर नजर डालती इमरान खान की एक रिपोर्ट
एक अरब से ज्यादा की आबादी और एशिया महाद्वीप की ताकत समझे जाने वाले भारत का विश्व कप फुटबाल में 132वां स्थान क्यों हैं? फुटबाल के लिए हमें जिन चीजों की जरूरत है वो सब है हमारे पास, फिर हम दुनिया के बाकी देशों के बराबर क्यों नहीं खड़े हो पा रहे हैं?
शारीरिक क्षमता : फुटबाल के खिलाडिय़ों मेंताकत, जोश और फुर्ती होनी जरुरी है। यह सब खूबियां हमारे खिलाडिय़ों में मौजूद हैं। उत्तर प्रदेश, उतरांखड, बंगाल या फिर पंजाब के खिलाड़ी अपने खेल कौशल के लिए पहले ही मशहूर हैं। उनके जोश और फुर्ती के सामने बड़े -बड़े पानी भरते हैं। फुटबाल खेलने के लिए टीम भावना भी सबसे अहम है। वो भी हमारे खिलाडिय़ों में कूट-कूट कर भरी हैं। जहां तक सामूहिक भावना का सवाल है तो वह भी हमारे समाज का काफी लम्बे अर्से से हिस्सा रहा है। सारी खूबियां मौजूद है हमारे खिलाडिय़ों में। लेकिन यह अजीबोगरीब संयोग है कि हमारे यहां वन मैन गेम क्रिकेट को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है जबकि फुटबाल की स्थिति दोयम दर्जे की है।
खेल के मैदान : फुटबाल खेलने के लिए क्रिकेट की तरह न बढिय़ा पिच की जरूरत है और ना ही हॉकी की तरह अच्छे कोर्ट की। इसके लिए तो सिर्फ समतल मैदान की काफी है। जो यूपी, मध्यप्रदेश और पंजाब में प्र्याप्त है। उत्तराखंड पहाड़ी प्रदेश होने के बावजूद वहां का बच्चा-बच्चा फुटबाल का दीवाना है। इसके बावजूद हम फुटबाल में कोई कीर्तिमान नहीं स्थापित कर रहे हैं। यूपी और पंजाब की मिट्टी भी ऐसी है जिससे फुटबाल के लिए अच्छे खेल के मैदान बनाए जा सकते हैं पर जरूरत है ध्यान देने की।
जरूरत है स्पांसरों की : अगर सरकार फुटबाल को प्रमोट करे तो स्पांसरों की भी कमी नहीं रहेगी। दूसरे खिलाडिय़ों की तुलना में फुटबाल के खिलाडिय़ों को बहुत कम पैसा दिया जाता है। स्पांसर अन्य खेलों पर तो पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं पर फुटबाल में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा क्योंकि सरकार ही फुटबाल के साथ भेदभाव कर रही है। सरकार को चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा फुटबाल एकेडमियां खोलकर खिलाडिय़ों को प्लेटफार्म दे जिससे उनकी खेल क्षमता तो निखरेगी ही देश को भी फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी मिल सकेंगे। घर रहकर खिलाड़ी प्रैक्टिस पर उतना समय नहीं दे पाते जितना आवश्यक है। एकेडमियों में खेलने वाले खिलाड़ी दूसरे खिलाडिय़ों के मुकाबले ज्यादा तेज होतें हैं। खिलाडिय़ों को सामाजिक सुरक्षा का डर भी है। फुटबाल के खिलाडिय़ों को आसानी से अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती जिससे उनमें सामाजिक असुरक्षा का भी खतरा रहता है। यह भी एक अहम पहलू है कि देश को अच्छे फुटबाल खिलाड़ी नहीं मिल रहे।
फीफा के लिए कर चुके हैं क्वालीफाई : आज फुटबाल जगत में भारत की हालत जैसी भी है। इस खेल से हमारा एक ऐतिहासिक रिश्ता है और इसी रिश्ते की वजह से भारतीय टीम ने वर्ष 1950 के फीफा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया था। हालांकि भारतीय टीम वहां नहीं गई, क्योंकि भारतीय खिलाड़ी जूता पहनकर खेलने के आदी नहीं थे, जबकि फीफा के नियमों के तहत नंगे पांव फुटबाल नहीं खेला जा सकता था। इस पहलू पर भी विचार की जरूरत है।
मां-बाप को भी बदलनी होगी सोच : मां-बाप भी अपनी सोच बदलें और अपने बच्चे को फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित करें ताकि भारत को फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी मिल सकें। भारत का हरेक पिता अपने बच्चे को सचिन ही बनाना चाहता है, कोई फुटबाल की ओर ध्यान ही नहीं दे रहा। अगर मां-बाप अपने सोचने का तरीका बदलें और बच्चों की रुचि फुटबाल में बढ़ाएं तो हमें भी फुटबाल में आगे जाने से कोई नहीं रोक सकता।
टूर्नामेंटों की है कमी : देश के लिए नेशनल लेवल के टूर्नामेंट खेल चुके प्रहलाद सिंह रावत कहते हैं कि अन्य खेलों की तरह फुटबाल के भी कई राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट होने चाहिए ताकि खिलाड़ी ज्यादा से ज्यादा मैच खेलें जिससे उनके आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हो। फुटबाल के नाम पर हमारे पास कुछ गिने चुने ही राष्ट्रीय टूर्नामेंट हैं इसका कारण यही है कि फुटबाल में लोगों की दिलचस्पी कम है जिससे लोग इसमें पैसा नहीं लगा रहे। उन्होंने बताया कि यूपी, दिल्ली और पंजाब में ऐसी एकेडमियों की कमी है जो ज्यादा से ज्यादा खिलाड़ी भर्ती करके उनको ट्रेनिंग और अन्य सुविधाएं मुहैया करवा सकें। सब तो क्रिकेट खेल नहीं सकते इसलिए हमें फुटबाल के खिलाडिय़ों की भी जरूरत है। फुटबाल मेहनत का खेल है इसके लिए कड़े अभ्यास की जरूरत है। इसके लिए खिलाडिय़ों को कम से कम 6 घंटे रोजाना प्रैक्टिस की जरूरत है। खिलाड़ी शुरू से ही पढ़ाई और अन्य कामों में इतना व्यस्त हो जाता है कि वो फुटबाल के लिए समय ही नहीं दे पाता। खिलाडिय़ों को पसीना बहाने की जरूरत है। फुटबाल में पिछड़े रहने का एक अन्य कारण यह है कि विदेशों में तीन-चार खिलाडिय़ों पर एक कोच होता है पर यहां ऐसा नहीं है। हमारा एक कोच 20-25 खिलाडिय़ों को ट्रेनिंग देता है जिससे वो उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाता। यूरोप में तो हरेक प्रकार के खिलाड़ी के लिए अलग-अलग कोच हैं जैसे मिड फिल्डर के लिए अलग, स्ट्राइकर के लिए अलग, पर हमारे यहां एक ही कोच हर तरह के खिलाडिय़ों को ट्रेनिंग देता है।
क्लबों की है कमी : यूपी, दिल्ली में बड़े फुटबाल क्लबों की भी कमी है जो अच्छे खिलाडिय़ों को मौका दे सकें। हमारे खिलाडिय़ों को दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है। दूसरे राज्यों की एकेडमियां पहले अपने खिलाडिय़ों को मौका देना चाहती हैं बाद में अन्य को। फिर ऐसे में खिलाड़ी क्या करें। खिलाडिय़ों के मां-बाप को भी लगता है कि फुटबाल में पैसा नहीं इसलिए वो अपने बच्चों को फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित ही नहीं करते । अगर फुटबाल की बड़ी एकेडमियां खुलती हैं और ये खिलाडिय़ों को अच्छा पैसा देते हैं तो बच्चों के मां-बाप भी इस ओर ध्यान देंगे। यूरोप, ब्राजील, इटली और दुनिया के अन्य देशों में खेल के मैदान उच्च क्वालिटी के हैं पर हमारी सरकार तो क्रिकेट के लिए 22 गज की पिच तैयार करने में ही जुटी रहती है, ऐसे में अगर खिलाडिय़ों को अच्छा मैदान मुहैया नहीं होगा तो उनके अभ्यास में बाधा तो आयेगी ही।
बदलनी होगी नीति : सरकार अगर ध्यान दे तो स्कूल स्तर पर ही फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी तैयार किये जा सकते हैं। स्कूल स्तर पर ही बच्चों की मानसिकता ऐसी बना दी जाती है कि वो क्रिकेट के सिवा किसी खेल को खेल ही नहीं समझते है। स्कूलों में फुटबाल का हाल भी वैसा ही है। स्कूल में पढ़ाई का सिस्टम भी ऐसा है कि एक बच्चे के पास पढ़ाई के बाद ज्यादा समय बचता ही नहीं कि वो प्रैक्टिस को प्र्याप्त समय दे सके। सरकार का चाहिए की वो पढ़ाई की स्थिति में भी सुधार करे जिससे खेल में रुचि रखने वाले बच्चों को प्रैक्टिस के लिए पर्याप्त समय मिल सके। दुनिया के दूसरे देशों में पांच-छह साल की उम्र में ही खिलाडिय़ों को सरकार की तरफ से खोली एकेडमियों में रखकर उन्हें सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं। जिससे 17-18 साल की उम्र तक वो अच्छे खिलाड़ी बन जाते हैं। अगर यहां भी सरकार खिलाडिय़ों को शुरू से ही सुविधाएं मुहैया करवाए जिससे उन्हें अच्छी शुरुआत मिले तो हमारे पास भी अच्छे खिलाड़ी होंगे।
प्रतिभा की नहीं है कमी : देश में प्रतिभा की कमी नहीं है। हमारे युवा खिलाडिय़ों में हर वो क्षमता है जो एक अच्छे फुटबाल खिलाड़ी में होनी चाहिए। जरूरत है सिर्फ उस क्षमता को तराशने की, उन्हें सही वक्त देने की। देश भर में हजारों ऐसे खिलाड़ी हंै जो दिन रात पसीना बहा रहे हैं और एक दिन फुटबाल की दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व भी करेंगे। ये खिलाड़ी जोश से लबरेज हैं सिर्फ इन्हें सही मार्गदर्शक की जरूरत है। फुटबाल की दुनिया में हम चमके तो पर फुटबाल खेलने नहीं बल्कि फुटबाल बनाने में। भारत में हजारों ऐसी कंपनियां है जो दुनिया के लिए फुटबाल बनाती हंै जिससे बाकी देशों के खिलाड़ी खेलते हैं लेकिन हमारे देश के लगभग 70 फीसदी हिस्से को एक अदद फुटबाल भी नसीब नहीं है।
बाकी खेलों से है सस्ता : अन्य खेलों के मुकाबले फुटबाल काफी सस्ता खेल है। इसको खेलने के लिए ज्यादा सामान की जरूरत नहीं है जिससे खर्च भी ज्यादा नहीं आता। भारत में सबसे ज्यादा फुटबाल कोलकाता और उत्तराखंड में खेला जाता है। कोलकाता में तो फुटबाल की स्थिति थोड़ी ठीक है पर उत्तराखंड में स्थिति चिंताजनक है। अगर इसे गरीबों का खेल कहें तो भी कोई गलत बात नहीं होगी क्योंकि एक फुटबाल से 11 लोग खेल सकते हैं और उस फुटबाल की कीमत भी बहुत ज्यादा नहीं होती है। अगर बच्चों को आर्थिक सहायता और अच्छे कोच मुहैया करवाए जाएं तो वो भी देश का नाम रौशन कर सकते हैं।
गिने चुने नाम ही आए सामने : आईएम विजयानन, सुनील चेतरी, महेश गावली, सनमुगम वेंकटेश-ये वो नाम है जो फुटबाल की दुनिया में तो चमके तो पर लोगों की जुबां पर नहीं आ सके। राष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने कई इनाम जीते पर भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं ले जा सके। फुटबाल की दुनिया में भारत के लिए एक ही नाम बहुत चमका, वो है बाइचुंग भूटिया। बाइचूंग भूटिया फुटबाल को लोकप्रिय बनाने के लिए आजकल जोश के साथ काम तो कर रहे हैं पर इस बात से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि वो खिलाड़ी कम और सेलेब्रिटी ज्यादा हैं। भारत के खिलाडिय़ों के पास खेलने के अतिरक्ति इतने काम होते हैं कि वो खेल को लगभग भूल ही जाते हैं। मशहूर होने पर उसको विज्ञापन इतने मिलने शुरू हो जाते हैं कि वो उसकी शूटिंग में ही सारा समय व्यस्त रहतें है। इससे खेल पर क्या प्रभाव पड़ता है वह सबके सामने है। सरकार को चाहिए कि वह इस ओर भी ध्यान दे ताकि फुटबाल को हमारे देश में भी उतनी महत्ता मिले जितनी क्रिकेट को मिल रही है।

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